नई दिल्ली। विधानसभा से पास बिलों पर गवर्नर और राष्ट्रपति की मंजूरी को लेकर सुप्रीम कोर्ट में लगातार सातवें दिन सुनवाई हुई। अदालत ने सख्ती दिखाते हुए कहा कि गवर्नर किसी भी विधेयक को अनिश्चितकाल तक लंबित नहीं रख सकते। अदालत ने साफ किया कि लोकतंत्र की भावना यही है कि विधानसभा से पारित बिलों पर तय समय में कार्रवाई हो।
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इस दौरान कई राज्यों ने भी गवर्नर की भूमिका पर सवाल उठाए। पश्चिम बंगाल सरकार के वकील कपिल सिब्बल ने तर्क दिया कि विधानसभा से पास बिल पर गवर्नर को हस्ताक्षर करना चाहिए या राष्ट्रपति को भेजना चाहिए। इसे लगातार रोककर रखना न केवल संविधान की भावना के खिलाफ है, बल्कि लोकतांत्रिक व्यवस्था को भी कमजोर करता है।
हिमाचल प्रदेश सरकार के वकील आनंद शर्मा ने कहा कि भारत का संघीय ढांचा ही लोकतंत्र की मजबूती है। अगर गवर्नर मनमर्जी से बिलों को रोकेंगे तो यह न सिर्फ केंद्र और राज्यों के बीच संबंधों को प्रभावित करेगा बल्कि लोकतंत्र पर भी सीधी चोट होगी।
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कर्नाटक सरकार के वकील गोपाल सुब्रमण्यम ने दोहरी सत्ता (डायार्की) पर आपत्ति जताते हुए कहा कि गवर्नर हमेशा मंत्रिपरिषद की सलाह पर काम करने के लिए बाध्य हैं। उन्हें स्वतंत्र विवेकाधिकार केवल अनुच्छेद 356 से जुड़ी रिपोर्ट भेजने और हाईकोर्ट की शक्तियों वाले मामलों में ही है।
वहीं केंद्र सरकार ने दलील दी कि राज्यों को इस मामले में सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा नहीं खटखटाना चाहिए, क्योंकि गवर्नर और राष्ट्रपति के फैसले न्यायिक समीक्षा के दायरे से बाहर आते हैं।
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गौरतलब है कि यह विवाद सबसे पहले तमिलनाडु में उठा था, जहां राज्यपाल ने कई बिलों को रोककर रखा था। सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को कहा था कि गवर्नर के पास कोई वीटो पावर नहीं है और राष्ट्रपति को भेजे गए बिलों पर तीन महीने के भीतर फैसला लेना होगा। इसके बाद राष्ट्रपति ने सुप्रीम कोर्ट से 14 संवैधानिक सवाल पूछे थे।
अदालत ने संकेत दिया है कि अगली सुनवाई में वह संविधान की व्याख्या कर यह स्पष्ट करेगी कि गवर्नर और राष्ट्रपति की भूमिका क्या होगी और क्या उनके लिए समयसीमा तय की जा सकती है।








