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Citizenship check : बिहार चुनाव से पहले मतदाता सूची पर सुप्रीम कोर्ट सख्त : EC से पूछा – नागरिकता की जांच अब क्यों, जब चुनाव सिर पर

Citizenship check : नई दिल्ली। बिहार में इस साल के अंत में संभावित विधानसभा चुनाव से पहले चुनाव आयोग (EC) द्वारा शुरू किए गए मतदाता सूची के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) अभियान को लेकर सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। विपक्षी दलों और नागरिक संगठनों द्वारा दायर याचिकाओं पर विचार करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने चुनाव आयोग से तीन बड़े सवालों पर जवाब मांगा और मामले की अगली सुनवाई 28 जुलाई को तय की है। सुनवाई के दौरान कोर्ट ने यह तो साफ किया कि वह फिलहाल इस प्रक्रिया पर कोई अंतरिम रोक नहीं लगाएगा, लेकिन चुनाव आयोग के इरादों और प्रक्रिया की टाइमिंग पर कड़े सवाल जरूर उठाए।

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सुप्रीम कोर्ट की कड़ी टिप्पणियां और निर्देश
जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाला बागची की पीठ ने कहा कि हम संवैधानिक संस्था (चुनाव आयोग) को उसकी ड्यूटी से नहीं रोक सकते, लेकिन जब देश में चुनाव होने जा रहे हों, तब सुधार की प्रक्रिया और चुनावी तैयारी का संतुलन जरूरी होता है। कोर्ट ने आयोग से तीन प्रमुख बिंदुओं पर जवाब मांगा:

  1. आधार, राशन कार्ड और वोटर ID को पुनरीक्षण में उपयोग किए जाने पर आयोग की नीति क्या है?
  2. नागरिकता की जांच की ज़िम्मेदारी क्या वाकई चुनाव आयोग की है या यह गृह मंत्रालय का विषय है?
  3. क्या गहन पुनरीक्षण की टाइमिंग बिहार चुनाव से पहले करना उचित है?

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आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं’ – चुनाव आयोग
चुनाव आयोग की ओर से पेश वकील ने कोर्ट को बताया कि आधार को नागरिकता का प्रमाण नहीं माना जा सकता, इसलिए वह इसके आधार पर मतदाता सूची से किसी को बाहर नहीं कर सकता। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने तीखा सवाल दागा – “अगर आधार नागरिकता का प्रमाण नहीं है, तो फिर आप गहन पुनरीक्षण में नागरिकता की जांच कैसे कर सकते हैं? यह गृह मंत्रालय का अधिकार क्षेत्र है। आप गलत दिशा में जा रहे हैं।”

कोर्ट ने चुनाव आयोग की नीयत पर सवाल नहीं उठाया, लेकिन प्रक्रिया की टाइमिंग को लेकर सख्त टिप्पणी की।

जस्टिस धूलिया ने कहा: “अगर आपको नागरिकता की जांच करनी थी, तो यह काम पहले किया जाना चाहिए था। अब चुनाव नजदीक हैं, और इस स्तर पर की गई कोई भी कार्रवाई संदेहास्पद हो सकती है।” कोर्ट ने यह भी स्पष्ट किया कि चुनाव आयोग जनप्रतिनिधित्व अधिनियम 1950 और संविधान के अनुच्छेद 326 के तहत मतदाता सूची का पुनरीक्षण करने के लिए अधिकृत है। “हम आयोग की शक्तियों को चुनौती नहीं दे रहे, लेकिन समय का चयन बहुत महत्वपूर्ण है,” – जस्टिस बागची ने कहा। याचिकाकर्ता के वकील गोपाल एस ने कहा कि मतदाता सूची पहले ही जून में अंतिम रूप ले चुकी थी, फिर यह अचानक गहन पुनरीक्षण क्यों? इस पर जस्टिस धूलिया ने कहा: “बहस को मुद्दे पर रखें। यह लोकतंत्र की जड़ से जुड़ा मसला है। हम गलियों में नहीं, सीधे हाईवे पर बहस चाहते हैं।”

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विपक्षी दलों ने क्यों दायर की याचिका?
इस अभियान के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में एक संयुक्त याचिका दायर की गई है जिसमें कांग्रेस, एनसीपी (शरद पवार गुट), शिवसेना (उद्धव ठाकरे), समाजवादी पार्टी, झामुमो, सीपीआई, सीपीआई (एमएल) के नेताओं ने हस्ताक्षर किए हैं। इसके अलावा राजद सांसद मनोज झा और टीएमसी सांसद महुआ मोइत्रा की ओर से भी अलग-अलग याचिकाएं दाखिल की गई हैं।

इन याचिकाओं में आरोप लगाया गया है कि चुनाव आयोग मतदाता सूची से चुनिंदा वर्गों को बाहर करने की कोशिश कर रहा है, जो चुनावी निष्पक्षता के खिलाफ है।

चुनाव आयोग की सफाई: मतदाता ही हमारी आत्मा हैं
EC की ओर से कहा गया: “हमारा उद्देश्य किसी को मतदाता सूची से हटाना नहीं है। हम मतदाता को ही अपनी आत्मा मानते हैं। संविधान के प्रावधानों का पालन कर रहे हैं और किसी को भी बिना उचित प्रक्रिया के सूची से बाहर नहीं किया जाएगा।” यह प्रक्रिया आमतौर पर हर 10–15 वर्षों में होती है। इसमें पूरी मतदाता सूची को फिर से खंगाला जाता है, न कि केवल मामूली संशोधन। इसे सार्वजनिक सत्यापन, दस्तावेज़ जांच, और नागरिकता प्रमाण के आधार पर पूरा किया जाता है। पिछली बार यह प्रक्रिया 2003 में हुई थी।

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