SIR vs. Constitution नई दिल्ली| बिहार विधानसभा चुनाव से पहले शुरू हुई वोटर लिस्ट के विशेष गहन पुनरीक्षण (Special Intensive Revision – SIR) की प्रक्रिया अब देश की सबसे बड़ी अदालत में चुनौती बन चुकी है। विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर कर इस प्रक्रिया को “असंवैधानिक, भेदभावपूर्ण और मनमाना” करार दिया है। गुरुवार को इस मामले की सुनवाई जस्टिस सुधांशु धूलिया और जस्टिस जॉयमाल्या बागची की पीठ के समक्ष हुई, जहां दोनों पक्षों में कानूनी दांव-पेंच और तथ्यात्मक तकरार देखने को मिली।
Read More : Indore Central Jail : अहिल्या मसाला’ से आत्मनिर्भर बनेंगे कैदी…..
SIR vs. Constitution क्या है मामला? क्यों मचा है बवाल?
विपक्ष का आरोप है कि चुनाव आयोग बिना ठोस कानूनी आधार के बिहार में SIR लागू कर रहा है, और इसके तहत 1 जनवरी 2003 के बाद वोटर लिस्ट में नाम जोड़ने वालों को अब 11 तरह के दस्तावेज़ जमा करने पड़ेंगे, जबकि 2003 से पहले वालों को सिर्फ एक फॉर्म भरना है। वरिष्ठ अधिवक्ता गोपाल शंकर नारायणन ने कोर्ट से कहा, “ये पूरी प्रक्रिया पक्षपातपूर्ण और संविधान विरोधी है। कानून में इसकी कोई स्पष्ट व्यवस्था नहीं है।”
SIR vs. Constitution सुप्रीम कोर्ट की खरी-खरी: आरोप नहीं, सबूत दो!
कोर्ट ने याचिकाकर्ताओं से दो टूक कहा – “आपको ये साबित करना होगा कि चुनाव आयोग का कदम नियमों के खिलाफ है। सिर्फ यह कह देना कि यह प्रक्रिया भेदभावपूर्ण है, काफी नहीं है।” जब याचिकाकर्ता ने कहा कि आयोग ‘काल्पनिक आधार’ पर काम कर रहा है, तो जस्टिस धूलिया ने टोका: “काल्पनिक कैसे? आयोग की अपनी लॉजिक और प्रक्रिया है। आप इसे सिर्फ एकतरफा नहीं कह सकते।”
चुनाव आयोग का बचाव और कोर्ट के सवाल, चुनाव आयोग की तरफ से पूर्व अटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल पेश हुए। उन्होंने कहा कि SIR एक नियमित प्रक्रिया है और नागरिकता प्रमाण के लिए सिर्फ आधार कार्ड पर्याप्त नहीं है। इस पर कोर्ट ने चुटकी लेते हुए पूछा: “अगर सिर्फ नागरिकता तय करनी है, तो ये तो गृह मंत्रालय का काम है, चुनाव आयोग इस जटिलता में क्यों पड़ा?” साथ ही कोर्ट ने यह भी कहा कि “अगर ये इतना ज़रूरी था, तो फिर आखिरी वक्त में चुनाव से ठीक पहले क्यों शुरू किया गया?” कोर्ट की अंतिम टिप्पणी: “हम सिर्फ अधिकार क्षेत्र नहीं, प्रक्रिया की वैधता पर गौर करेंगे।” “SIR प्रक्रिया अगर है, तो कानूनी दायरे में होनी चाहिए – बिना भेदभाव के।” “केवल 2003 के बाद वालों से डॉक्यूमेंट मांगना, भेदभाव का संकेत देता है।” आगे की सुनवाई जारी है। आने वाले दिनों में सुप्रीम कोर्ट ये तय करेगा कि क्या चुनाव आयोग की ये विशेष प्रक्रिया संविधान और RP एक्ट के दायरे में है, या फिर चुनाव से पहले एक रणनीतिक “फिल्टर” के तौर पर लायी गई है।