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Political Wrangling : मातृभाषा पर ममता का वार : बोलीं धमकी असंवैधानिक, हिमंता ने किया पलटवार – निशाना घुसपैठिए, न कि असमिया जनता

Political Wrangling : कोलकाता/गुवाहाटी। देश में भाषा और पहचान को लेकर एक बार फिर सियासी टकराव सामने आया है। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा आमने-सामने हैं। मुद्दा है — बांग्ला भाषा और बंगाली पहचान को लेकर भाजपा पर ममता का सीधा हमला और उसके जवाब में असम सरकार की प्रतिक्रिया।

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ममता बनर्जी का बयान:

ममता बनर्जी ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ‘एक्स’ पर एक विस्तृत पोस्ट में लिखा कि असम में भाजपा सरकार बांग्ला भाषियों को निशाना बना रही है। उन्होंने कहा कि बांग्ला देश की दूसरी सबसे बड़ी बोली जाने वाली भाषा है, और असम की भी प्रमुख भाषाओं में से एक है।

“भारत जैसे विविधताओं वाले देश में, नागरिकों को उनकी मातृभाषा के लिए अपमानित या प्रताड़ित करना न केवल असंवैधानिक है, बल्कि यह एक खतरनाक विभाजनकारी राजनीति का संकेत भी है।”

ममता बनर्जी ने यह भी आरोप लगाया कि भाजपा असम में बंगालियों को एनआरसी जैसे हथियारों से डरा रही है। उन्होंने एक मामले का उदाहरण दिया जहां दिनहाटा के एक निवासी उत्तम कुमार बृजवासी को विदेशी करार दिया गया, जबकि वे पिछले 50 वर्षों से भारत में रह रहे हैं और उनके पास सभी आवश्यक दस्तावेज हैं।

हिमंता बिस्वा सरमा का पलटवार:

इस पर असम के मुख्यमंत्री हिमंता बिस्वा सरमा ने भी ‘एक्स’ पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि ममता बनर्जी इस मुद्दे को गलत तरीके से पेश कर रही हैं। उन्होंने कहा:

“हम अपने ही लोगों के खिलाफ नहीं हैं। हमारी लड़ाई अवैध घुसपैठियों के खिलाफ है, जो राज्य की सांस्कृतिक और जनसंख्या संरचना को प्रभावित कर रहे हैं। यह कोई राजनीति नहीं, बल्कि वास्तविक सुरक्षा मुद्दा है।”

सरमा ने आगे कहा कि सुप्रीम कोर्ट ने भी असम में घुसपैठ को ‘बाहरी आक्रमण’ करार दिया है और उन्होंने इस बात को दोहराया कि राज्य सरकार हर भाषा और समुदाय का सम्मान करती है।

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राजनीतिक पृष्ठभूमि और विश्लेषण:

इस विवाद के पीछे गहरी राजनीतिक रणनीति देखी जा रही है। 2026 के लोकसभा चुनावों से पहले भाषा और पहचान को लेकर मुद्दे तेजी से उछाले जा रहे हैं। ममता बनर्जी खुद को बंगाली अस्मिता की रक्षक के रूप में स्थापित कर रही हैं, जबकि हिमंता सरमा असम की सांस्कृतिक रक्षा को प्राथमिकता बता रहे हैं। विश्लेषकों का मानना है कि यह बहस केवल भाषा की नहीं, बल्कि राजनीतिक प्रभाव, क्षेत्रीय पहचान और वोट बैंक की रणनीति भी है।

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